पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना (ईआरसीपी)
प्रस्तावना-
जल मानव जीवन की प्राथमिक आवष्यकताओं में सर्वप्रथम है। यह एक ऐसी वस्तु है, जिसके स्थान पर कोई अन्य वस्तु आसानी से प्रयुक्त नहीं की जा सकती है। जल संसार का विलक्षण रसायन है। जल हमारे लिए जीवन षक्ति के साथ ही राष्ट्रीय एकता का आधार रहा है। जन्म से मरण तक मानव के प्रत्येक वैयक्तिक और सामाजिक कार्यों में जल अनिवार्य है। जिस प्रकार समस्त संस्कारों को जल ही पवित्र बनाता है, उसी प्रकार भारत के सारे तीर्थों को जल ही तीर्थ बनाता है।भारतीय संस्कृति की यह मान्यता सुविदित है कि मानव षरीर पांच तत्वों का बना हुआ है।ये पांच तत्व हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाष। इन्हें पंचभूत भी कहते हैं, क्योंकि ये वे तत्व हैं, जिनसे सारी सृष्टि की रचना हुई है। वेदकाल से लेकर आज तक जल का महत्व षास्त्रों और काव्यों में प्रतिफलित होता आया है। षास्त्रों में प्रसिद्ध है कि अव्याकृत ब्रहमा ने जब सृष्टि की रचना करनी चाही तो उन्होंने सबसे पहले जल में सृष्टि का बीजवपन किया। जल को नारा भी कहा गया है, क्योंकि वह नर यानि ईष्वर की सन्तान है व नारा यानि जल ईष्वर का प्रथम आश्रय स्थल है, इसलिए ईष्वर को नारायण कहते हैं। महाकवि कालिदास भी अभिज्ञान षाकुंतलम के मंगलाचरण में सबसे पहले जल का ही स्मरण करते हैं कालिदास के अनुसार अष्टषिव की पहली मूर्ति जलस्वरूप है, जो सृष्टि का भी प्रथम तत्व है। विज्ञान के अनुसार जल से ही जीवन के तत्व पैदा हुए, जलचर प्राणी व उभयचर, फिर स्थलचर। इसमें मानव भी आते हैं।
गोपथ उपनिषद में – आपो भृग्वगिरो रूपमापो भृग्वगिरोमय
लिखकर यह बताया गया है कि जल तत्व तो सूक्ष्म तत्वों का संघात है, जिन्हें भृगु और अंगिरा कहा गया। एक दृष्टि से इन्हें अग्नि और सोम का रूप भी माना जा सकता है। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि मानव षरीर में सर्वाधिक मात्रा यदि किसी तत्व की है, तो वह जल है। षरीर के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व जल है। जल प्रकृति का अलभ्य, अनुपम और ऐसी संजीवनी संपदा है, जिसके हर कण में प्राणदायिनी षक्ति है।जहां जल है, वहां जीवन है, प्राण है और स्पंदन है, गति है, सृष्टि है और जल जनजीवन का मूलाधार है। जहां जल नहीं है, वहां जीवन भी नही है, सब निष्प्राण और निष्चेष्ट है। जल प्रकृति का अलौकिक वरदान स्वरूप मानव, प्राणी तथा वनस्पति सभी के लिए अनिवार्य होने के साथ-साथ ही परिहार्य है। इसलिए संस्कृत ग्रन्थों में जल को जीवन माना गया है।
जल के बिना विकास असंभव
जिस प्रकार जीवित रहने के लिए प्राणों का महत्व है, उसी प्रकार विकास में जल की अनिवार्यता है। आज का संपूर्ण प्राणी जगत जल का ही विकसित रूप माना जा सकता है। मानव षरीर का 70-75 प्रतिषत भाग जल से ही निर्मित है। जल जमीन पर पैदा होने वाली वनस्पतियों को लवण, खनिज, पोषक तत्व उर्वरक आदि पदार्थों को पहुंचाता है। जल विधाता की प्रथम सृष्टि है। विधाता ने सृष्टि की रचना करते समय सबसे पहले जल बनाया, फिर उसमें जीवन पैदा किया। इसी विधाता की हम जिन षोडस उपचारों से पूजा करते हैं। ये उपचार अधिकांष जल से ही संपन्न होते हैं।
राज्य की 41 प्रतिषत आबादी वाला पूर्वी राजस्थान
धडकते जीवन के कलरव से भरपूर है रंगीला राजस्थान। सुनहरी रेत पर दौडती, सजी-धजी ऊंटगाडियां, हवाओं में लोक संगीत और नृत्य की गूंज, भव्य दुर्ग और हवेलियां, लाल गुलाबी चटकीले रंगों का प्रदेष। इसी रंगीले राजस्थान की 41 प्रतिषत आबादी वाला एक बडा हिस्सा ऐसा भी है, जहां प्यास से दम तोडते बच्चे, बंजर पडे खेत और कर्ज में डूबे किसान, उधार में मिलता पानी, दूषित पानी से बीमार लोगों से भरे अस्पताल और दिन का तीन चौथाई हिस्सा सिर्फ पानी की तलाष में बिताती महिलाएं। कुछ ऐसी तस्वीर है ढूंढाढ और जगरोटी के पहाडों से घिरे, चंबल के बीहड में पल रहे उत्तरी-पूर्वी राजस्थान के निवासी लोगों की।
प्रकृति के लगातार हो रहे दोहन से लगभग पूरी धरा पर पानी की कमी एक बडी चुनौती बनती जा रही है। गर्मी का तेज साल दर साल बढता जा रहा है, जबकि बारिष का ग्राफ हर साल गिर रहा है। ऐसी स्थिति में पीने के पानी और खेती के लिए सिंचाई की व्यवस्था करना जीवन जीने के लिए कंकाल होते षरीर में रक्त जुटाने से कम नहीं है।
मुंह-अंधेरे ही पानी के बर्तन लेकर कई कोस दूर जाना, फिर कडी धूप में दो-तीन घंटे खडे रहकर अपनी बारी का इंतजार करना पडता है। परिवार की जरूरत को पूरा करने के लिए दिन में कम से कम चार से पांच बार पानी ढोना पडता है। पेयजल और सिंचाई के अभाव में आय का साधन नहीं तो लोग घर-गांव छोडकर काम की तलाष में दूसरे राज्यों में जाकर अपने परिवार का पेट भर रहे हैं। वहां मवेषियों को कहां ले जाएं, खेत और पषुओं को यही छोडकर जाना पडता है। इन विकराल हालातों में लोग सडा हुआ दूषित पानी पीने के लिए मजबूर हैं। इलाके में बीमारियां फैल रही हैं, बच्चे जन्मदोष हो रहे हैं।
सवाल यह है कि जब लोग ही नहीं बचेंगे, तो कला-संस्कृति भी कैसी बचेगी। दूसरी ओर खेत में बोई गई फसल को सिंचाई के लिए पानी नहीं मिल पाता। ऐसे में कर्ज लेकर किसान बोरबेल कराते हैं, लेकिन अधिकांष बार बोरबेल से पानी नहीं निकल पाता। कारण साफ है-जमीन में बचा-खुचा पानी पाताल पहुंच चुका है। खेती करने और पैसे कमाने का कोई साधन नही है। आगे स्थिति और भी बिंगडती है तो हालात और भी ज्यादा विकराल हो जाएंगे।
राजस्थान में लोग पुरा सम्पदा, बीहड, महल, पहाडी कला संस्कृति देखने आते हैं। देसी-विदेषी पर्यटकों का जमावडा रहता है। दूसरी ओर पूर्वी राजस्थान के लगभग हर गांव और ढाणी में दिन का आधे से ज्यादा समय सिर्फ पानी के इंतजाम में निकल जाता है। पानी के अभाव में लोगों की सोच बनती जा रही है कि क्या इसी काम के लिए हम पैदा हुए।
कला, किले, रंग और संस्कृति- राजस्थान की वो अनूठी पहचान, जो इसे देष-विदेष में सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थल बनाती है। भारत के प्रसिद्ध गोल्डन ट्रांयगल का हिस्सा राजस्थान, वर्ष भर लाखों विदेषी और घरेलू पर्यटकों की आवभगत में व्यस्त रहता है। रजवाडों की भूमि कहलाए जाने वाला राजस्थान देष के सर्वाधिक पर्यटन राजस्व देने वाले राज्यों में से एक है। इसके बाद भी विडंबना ऐसी कि सैलानियों को जिन्दगी की सबसे सुनहरी यादें देकर विदा करने वाले इस बहुरंगी प्रदेष के उत्तरी-पूर्वी राजस्थान के मूल निवासियों के लिए एक अंतहीन संघर्ष का कारक है।
यहां प्रकृति जैसे मानव जाति से रूठी पडी हो। न तो साल भर साथ देने वाले जल के प्राकृतिक स्रोत, न ही मेघ खुलकर बरसते हैं, और ऊपर से कूदरत की दोहरी मार, कि भूजल भी पीने के योग्य नहीं। पृथ्वी की लगभग 75 प्रतिषत सतह जल से भरी है, जिसका 97 प्रतिषत हिस्सा महासागरों में है, बचे हुए 3 प्रतिषत में केवल 1 प्रतिषत जल ही प्रयोग करने की स्थिति में है।
भारत की बात करें तो यह विष्व की कुल उपलब्धता का केवल 3 प्रतिषत जल अनुपात है, जो मौजूदा जनसंख्या को देखते हुए एक चिंताजनक स्थिति है। प्रदूषित जल की सूची राजस्थान अब देष के तीन षीर्ष राज्यों में आ चुका है। मौजूदा दिनों में पानी के लिहाज से राजस्थान प्रदेष का उत्तरी-पूर्वी सबसे बडा संकटग्रस्त इलाका है। जमीन के नीचे नाम-मात्र का पानी बचा है, जिसमें भी कैडिमियम फ्लोराइड जैसे विषैले तत्व हैं, जिन्हें पीकर लोगों को स्वास्थ संबंधी अनेक जानलेवा बीमारियों से जूझना पड रहा है। पूर्वी राजस्थान में गुणवत्तापूर्ण जल की दृश्टि से और भी बदतर हालात हैं। जहां भूमिगत जल और सतही पानी दोनों का ही अभाव होने से पानी की गुणवत्ता हमेषा से खराब रही है। लोगों का दांतों, हडिडयों और अन्य गंभीर बीमारियों से जुझना यहां एक आम बात है।
पहाडी और रेत के टीलों से घिरा है पूर्वी राजस्थान
आन-बान-षान के पहचाने जाने वाले पूर्वी राजस्थान के अधिकांष जिलों में जल संसाधनों की बहुत कमी है। अधिकतर पहाडी और रेत के टीलों की जमीन है। बारिष को आकर्षित करने वाली वृक्षावली का भी अभाव है। अधिकांष जगह तो पानी नाम मात्र के लिए भी नहीं बचा है। हालात ये हैं कि जेठ के महीने में इन लोगों को गांव छोडकर जाना पडता है। ऐसे ही हालात बने रहेंगे तो पानी के अभाव में जीवन मुष्किल हो जाएगा।
ज्यादातर गांवों में लोगों को पानी के लिए रोज मीलों दूर जाना पडता है। औरतें, बच्चे लोग सिर पर घडे रखकर झुलसती गर्मी में कोसों दूर जाते हैं। राजस्थान का पूरा उत्तरी-पूर्वी इलाका आज भयंकर भूजल संकट से जूझ रहा है। सबसे बडी सोचनीय स्थिति यह है कि यहां पानी का जलस्तर ही नहीं गिर रहा, बल्कि बचा हुआ पानी भी दूषित हो रहा है। इसके बाद भी मजबूरी में लोगों को यही दूषित पानी पीना पड रहा है। कई जिले ऐसे भी हैं, जहां जब भी बारिष होती है तो नालों का दूशित पानी भी खेतों में घुस जाता है, जिससे फसल बर्बाद हो रही है।
पूर्वी राजस्थान में खरीफ में बाजरा और तिलहन की फसल बोई जाती है, जिसकी उपजकिसान के घर पहुंचने से पहले तक लगभग हर बार प्रकृति का संकट मंडराए रहता है। पकने के बाद कटाई के वक्त बिना मौसम की बारिष से फसल तबाह जाती है। यही हाल रवि में बोई जाने वाली सरसों व गेहूं की फसल मंे होता है, जिसे अंधड और ओलों की मार बर्बाद कर देती है। एक तो उत्तरी-पूर्वी राजस्थान के पथरीले इलाके में देर रात तक तापमान अधिक बना रहता है। दूसरा बर्षा भी कम होती है। उसमंे भी सभी भागों में जल का वितरण एक समान नही रहता। कहीं बादल 80 सेंटीमीटर से अधिक बरस जाते हैं तो कहीं 16-17 सेंटीमीटर पर ही बारिष सिमट जाती है।
बारिष की अनिष्चितता बाढ और सूखे का कारण
राजस्थान का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 342.52 लाख हेक्टेयर है, जो संपूर्ण देश के भौगोलिक क्षेत्र का 10.4 प्रतिशत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान देश का सबसे बडा राज्य है। देश में उपलब्ध कुल सतही जल की 1.16 और भूजल की 1.72 प्रतिशत मात्रा यहां पाई जाती है। उत्तरी-पूर्वी राजस्थान में स्थिर जल के रूप में बहती हुई मौसमी नदियां, कुएं-बावडियां, प्रमुख परम्परागत जल साधन तो हैं, पर इनमें बहने वाले जल की मात्रा वर्षा ऋतु के दौरान होने वाले वृष्टिपात पर ही निर्भर है। अपर्याप्त और अनिष्चित मात्रा में बारिष का असमान वितरण उत्तरी-पूर्वी राजस्थान के किसी भी भाग में हर वर्ष बाढ और सूखे का कारण बन रहा है। ऐसे ही सतही पानी पर निर्भरता मुष्किल है।
हालात ये हैं कि 85 प्रतिषत कृषि सिर्फ भूजल पर निर्भर है और 65 प्रतिषत पीने और औ़द्यो गिक आवष्यकता को भी भूजल के माध्यम से ही पूरा किया जा रहा है। इससे जल संसाधन के लिए अति दोहन की स्थिति पैदा हो गई है। बिना पानी जीवन सरल नही है। पानी के भण्डारण के लिए कई तरह के जुगाड बनाने में लोग बहुत मेहनत करते है, ताकि साल भर गुजारा चल सके। मेहनत सफल होगी, इसकी कोई गारण्टी नही होती। मेघों का न बरसना तो मुसीबत है ही, पर मेघ ज्यादा बरस जाएं तो भी जीना दूभर है। एक दषक पहले तक नलकूपों से 100-150 फीट पर ही पानी निकल आता था, लेकिन अब 800 से 1000 फीट तक पानी नही मिल रहा है। यही कारण है कि हैण्डपम्प और नलकूप नकारा हो रहे हैं।
बारिष के पानी का कुप्रबंधन-बढाता है बाढ का खतरा
जब भारी वर्शा से पानी का स्तर बढता है, तो कोटा बैराज ओवरफ्लो के बाद चंबल नदी में जल निकासी से पूर्वी राजस्थान के निचले इलाके, विषेश कर कोटा, सवाईमाधोपुर, करौली, ध्ाौ लपुर जिलों में बाढ के हालात बनते हैं। दर्जनों गांव बाढग्रस्त हो जाते हैं। बडी संख्या में पानी घरों में घुस जाता है, कच्चे मकान ढह जाते है, इंसानों व मवेषियों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडराने लगता है, जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। हालातों पर काबू पाने के लिए प्रषासन को बडी मषक्कत करनी पडती है। पिछले कुछ सालों से मानूसन के दिनों में हर बार निचले क्षेत्रों में पानी से नुकसान हो रहा है। पानी की निकासी और संचारण के लिए पूरे इंतजाम नही हो पाते। इसके साथ बाढग्रस्त इलाकों में पीडितों को राहत पहुचाना भी बहुत मुष्किल हो जाता है। बारिष के पानी के कूप्रबंधन के चलते हर साल बाढ भी आती है और पानी की भी बर्बादी होती है।
डार्क जोन में बदल रहे हैं पूर्वी राजस्थान के अधिकांष जिले
पानी का दोहन तो अंधाधुंध तरीके से हो रहा है, लेकिन रिचार्ज उस स्तर पर नहीं हो रहा,जिसकी जरूरत है। तीन दषक पहले तक सुरक्षित समझे जाने वाले क्षेत्र वर्तमान में डार्क जोन में बदल गए हैं। पूर्वी राजस्थान के करौली जनपद के नादौती तहसील का लगभग पूरा क्षेत्र ऐसा ही है, जहां जमीनी पानी का नितांत अभाव है। फार्म पाण्डों में बारिष का जल संग्रहित कर खेती की परंपरा को बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड रहा है। ऐसे ही उत्तरी-पूर्वी राजस्थान में कई इलाके हैं, जो डार्क जोन की श्रेणी में आ चुके हैं। जलस्तर रोजाना डेढ इंच जमीन से नीचे कम होता जा रहा है। पानी की भारी कमी के चलते आर्थिक और मानसिक मुसीबतों से लोग जुझ रहे हैं। जल भंडारण के बिंगडते हालातों में मानसून जुएं की तरह अनिष्चित हो गया है। कृषि से आय जुटाना ही क्षेत्र के किसानों के लिए अहम माध्यम रह गया है। राज्य जल विभाग की रिपोर्ट के अनुसार जलदोहन का सबसे अधिक प्रभाव माइनस 1़88 मीटर गिरावट के साथ पूर्वी राजस्थान के जिलों में आंका गया है। दौसा जिले में ऐसा ही हुआ है। हालात ये हो गई है कि कुछ क्षेत्रों में करीब 500 से 800 फीट नीचे तक खुदाई करने पर भी पानी नही है। मतलब साफ है, आधे से ज्यादा इलाके में जमीनी पानी कभी भी समाप्त हो सकता है।
चंबल का उदगम स्थल है मध्यप्रदेष का विंध्य पर्वत
चंबल नदी भारत की सबसे कम प्रदूषित नदियों में से एक है। इसका उद्गम स्थल विंध्य पर्वत (इंदौर, मध्यप्रदेश) के उत्तरी ढलान सिंगार चौरी चोटी है। यहां से लगभग 341 किलोमीटर तक मध्यप्रदेश में उत्तर दिशा की ओर बहती हुई राजस्थान में प्रवेश करती है। राजस्थान में इस नदी की कुल लंबाई 225 किलोमीटर है। यह राजस्थान के उत्तर-पूर्व दिशा में बहती है। उत्तरप्रदेश में इस नदी की लंबाई लगभग 32 किलोमीटर है, जो इटावा में यमुना नदी में मिल जाती है। चंबल नदी बर्षा आधारित नदी है। उत्तर भारत में गंभीर रूप से लुप्तप्राय घडियाल, रेड क्राउंड रूप कछुए और लुप्तप्राय गंगा डॉल्फिन (राष्ट्रीय जलीय पशु) को चंबल में संरक्षण मिलता है। इसके लिए चंबल नदी बेसिन के क्षेत्र में 5400 वर्ग किमी में फैला त्रिकोणीय राज्य (राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश) संरक्षित क्षेत्र हैं। चम्बल नदी का कुल अपवाह क्षेत्र 19,500 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें पूर्वी राजस्थान का काफी क्षेत्र आता है।
पूर्वी राजस्थान के लिए आषा की किरण है ‘‘ईआरसीपी’’
हर साल सूखे और बाढ की दोहरी मार झेलने वाले पूर्वी राजस्थान के किसानों के लिए ईआरसीपी यानि ‘‘पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना’’ ही आषा की एकमात्र किरण है। इस सरकारी परियोजना का मुख्य उद्देश्य चंबल से व्यर्थ बहकर जाने वाले पानी को रोककर बांध्ा एवं नहरों के माध्यम से पूर्वी राजस्थान के सूखाग्रस्त अथवा जरूरतमंद जिलों में पहुंचाना है, ताकि पूर्वी राजस्थान की पेयजल और सिंचाई समस्या का समाधान हो सके। इस परियोजना के माध्यम से पूर्वी राजस्थान के जल प्रबंधन को नए सिरे से विकसित किया जाना है। इस प्रोजेक्ट के माध्यम से चंबल नदी और उसकी सहायक नदियों कुन्नू, पार्वती और कालीसिंध को आपस में जोडकर बारिश के दौरान उपलब्ध अधिशेष जल का उपयोग राज्य के दक्षिण-पूर्वी उन जिलों में करना है, जहां पीने के पानी और सिंचाई हेतु जल का नितांत अभाव है। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने पूर्वी-उत्तरी राजस्थान के 13 जिलों करौली, सवाईमाधोपुर, धौलपुर, भरतपुर, दौसा, झालावाड़, कोटा, बांरा, बूंदी, अलवर, जयपुर, टोंक और अजमेर की पेयजल, सिंचाई और औद्योगिक इकाइयों को पानी उपलब्धता की समस्या के स्थायी समाधान के लिए वर्ष 2016 में यह प्रोजेक्ट तैयार कराया था। उस वक्त इसकी अनुमानित लागत 37247.12 करोड आंकी गई। बडी राशि का प्रोजेक्ट होने के कारण राज्य सरकार ने नवंबर 2017 में इसे केन्द्रीय जल आयोग को भेजा था। तब केन्द्र सरकार ने आश्वस्त किया था कि यह केन्द्रीय योजना का हिस्सा बनेगा। यह परियोजना इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्यूंकि राजस्थान में जलापूर्ति करने वाले स्त्रोतों में एक मात्र चंबल नदी ही है, जिसके बेसिन में सबसे अधिक पानी है।
ईआरसीपी से 26 विभिन्न बडी एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाओं में जल धाराओं को मोड कर, एक नए चैनल के जरिए कृशि क्षेत्र एवं आबादी को जलापूर्ति होने से भूजल का अनावष्यक दोहन रोकने में मदद मिलेगी। इस परियोजना से करीब 1268 किलोमीटर का नहर तंत्र विकसित होने से 13 जिलों में पानी और सिंचाई की समस्या खत्म होगी, क्योकि इससे 1723.05 एमसीएम पेयजल पूर्वी राजस्थान के लोगो को मिलेगा। इसके अलावा 286.04 एमसीएम पानी उद्योगों को मिलने से औद्योगिक तंत्र विकसित होगा और बेरोगजारी रोकने में मदद मिलेगी। परियोजना में 1500 एमसीएम पानी सिंचाई के लिए मिलेगा, जिससे 26 बडी और मध्यम सिंचाई परियोजनाएं अपनी मूल स्थिति में वापस आ जाएंगी। यह अनि 26 सिंचाई परियोजनाओं में से मौजूदा सीसीए 2.31 लाख हेक्टेयर को स्थिर करने के साथ और बढाएगा। इसके साथ 2 लाख हैक्टेयर नए क्षेत्र में सूक्ष्म सिंचाई पद्धति से सिंचाई षुरु हो सकेगी। ईआरसीपी के माध्यम से प्रदेष में निवेष और सषक्तिकरण का वातावरण बढेगा। इससे औद्योगिक जल आवष्यता और बिजली क्षेत्र की आवष्यकता भी पूरी होगी। इससे सतही और भूजल की उपलब्धता में वृद्धि होगी।
ईआरसीपी की प्रमुख विषेशताएं-
- यह परियोजना पूर्वी राजस्थान के 13 जिलों के लिए प्राणवायु जैसा कार्य करेगी। इसमें पूर्वी राजस्थान का व्यापक सामाजिक और आर्थिक हित है।
- इस परियोजना के जल अध्ययन को केन्द्रीय जल आयोग;सीडब्ल्यूसीद्ध ने 08.02.2016 को मंजूरी प्रदान की हुई है।
- इसकी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट ;डीपीआरद्ध वैपकोस ने तैयार की, जिसे 19.11.2017 को केन्द्रीय,जल आयोग, नई दिल्ली के समक्ष प्रस्तुत किया गया।
- यह परियोजना रिपोर्ट केन्द्रीय जल आयोग के दिषा-निर्देष-2010 के मानक दिषा-निर्देषों के अनुसार तैयार की गई है, जिसमें पीने के पानी की 100 प्रतिषत और सिंचाई के पानी की 75 प्रतिषत सुनिष्चिता निर्धारित की गई है।
- यह डीपीआर मध्यप्रदेष और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों के बीच 25.08.2005 को हुए अंतर-राज्जीय समझौते के अनुसार तैयार की गई है।
- गौरतलब यह भी है कि मध्यप्रदेष ने पहले ही नेवाज नदी पर 582.75 एमसीएम भराव क्षमता का कुंडलिया बांध और कालीसिंध नदी पर 6161 एमसीएम क्षमता के बांध का निर्माण कर लिया है। इसके साथ पाटनपुर में भी एक बांध निर्माण प्रक्रिया में है।
चंबल से हर साल औसतन बह जाता है 20 हजार एमसीएम पानी
चंबल नदी से औसतन हर साल लगभग 20 हजार मिलियन क्यूबिक मीटर एमसीएम पानी यमुना और गंगा नदी होते हुए बंगाल की खाडी में चला जाता है। मानसून के वक्त यही पानी कई क्षेत्रों में बाढ का भी कारण बनता है। चंबल नदी में बने कोटा बैराज से वर्श 2019 में 13896 एमसीएम, वर्श 2020 में 305.72 एमसीएम, वर्श 2021 में 305.00 एमसीएम पानी डिस्चार्ज किया गया।
जिसे भविश्य में पेयजल, सिंचाई व उद्योगो के लिए उपयोग में लिया जा सकता था। इसके अलावा बनास नदी सहित, क्षिप्रा नदी, मेज, बामनी, सीप, काली सिंध, पार्वती, छोटी कालीसिंध, कुनो, ब्रह्मणी, परवन नदी, आलनिया, गुजॉली ये सब भी चंबल की ही सहायक नदियां है। सही प्रबंधन की कमी के चलते इन नदियों का पानी भी कोटा बैराज के अतिप्रवाह के साथ व्यर्थ बह जाता है।